MyPoems: मेरा अक्स

क्यूँ इतना मजबूर मेरा वजूद नज़र आता है ?

उलझा उलझा बड़ा फ़िज़ूल नज़र आता है

अपनी आँखों के बिखरते सपनों का

क़तरा क़तरा ज़हर सा नज़र आता है

हम ढूँढ़ते रहे जिन गलियों में खुद्की परछाई

उन गलियों में अँधेरा ही नज़र आता है

वो ख्वाहिशें जो उड़ती रहीं मेरे नभ पर

आज सिमटी सी बेजान नज़र आतीं हैं

वक़्त का खेल भी निराला है

कभी ख़ुशी कभी गम का सिलसिला पुराना है

डर लगता है तन्हाइयों की गहराइयों से

कहीं गुमशुदा सा मेरा अक्स नज़र आता है ,,

Editorial Team (Prerna ki Awaaz)

Hello Everyone, Thank you for being with Digital Magazine "Prerna ki Awaaz"... (An inspirational bilingual magazine for the unique journey of life of self-reliant & liberated world...) आत्मनिर्भर और मुक्त विश्व की अनूठी जीवन यात्रा के लिए एक प्रेरणादायक द्विभाषी पत्रिका... "प्रेरणा की आवाज़" के साथ बने रहने के लिए आपका हार्दिक आभार...

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