Best Hindi Story: Daanweer
दानवीर
भारत वर्ष में त्योहारों पर दान देने की परंपरा है। प्रत्येक धर्म, जाति एवं समुदाय के लोग अपने अपने त्योहारों पर ज़रूरतमंदों को अपनी सामर्थ्य के हिसाब से कुछ न कुछ दान देकर त्योहार की खुशियां बांटने की चेष्टा करते हैं।
लॉकडाउन के दिनों में बहुत से त्योहार आए और लोगों ने सामाजिक दूरी बनाए रखते हुए अपने घरों में रहकर ही अपने त्योहारों को मनाया। माना कि वे बाहर नहीं जा सके, अपने धर्म स्थानों पर जाकर त्योहार नहीं मना सके, पर दान! वह तो इस समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है। लॉकडाऊन में निसंदेह ही कुछ लोग भूख से परेशान हैं। सब कुछ बंद होने के कारण ध्याड़ी पर काम करने वाले लोग जो रोज़ कमाकर अपने परिवार का पोषण करते हैं, और उनके पास बचत के नाम पर भी कुछ नहीं होता, उसके लिए अपने परिवार का पेट पालना सचमुच एक बहुत बड़ी चुनौती है।
उस दिन सुबह से ही त्योहार की गहमागहमी और पाठ पूजा के बीच माताजी ने पिता जी से गरीबों के लिए दान में कुछ राशन का सामान देनेके लिए धन राशि निकालने को कहा।
ऐसा सुनते ही पिताजी में झटपट अपने बटुए में से ₹50 का नोट निकाल कर माताजी कि ओर बढ़ाया। उसे देखकर माला के साथ जप करती माताजी ने मुंह पिचकाकर असहमति दर्शा दी, तो पिताजी ने उस नोट को पुनः बटुए में रखकर अब एक सौ का नोट निकाकर माताजी को दिखाया तो माताजी ने फिर अपनी नज़रें फिराते हुए दान के लिए इतनी कम राशि पर फिर असहमति दर्शाते हुए पिताजी को कुछ अधिक धनराशि निकालने का इशारा किया। पिताजी को माताजी का इस तरह से दान के नाम पर पैसों की बर्बादी का विचार अच्छा नहीं लगा और वह माता जी को डांटते हुए बोले, “तूने कभी खुद कोई पैसा कमाया है जो दान देने चली है, यह लोग गरीब है तो हम कौन सा अमीर है!”, सब के सब पाखंडी है, हम से पैसा लेकर बाहर जाकर नशा करते हैं।
एक बार स्वामी विवेकानंद जी ने अपने शिष्यों को दान की महिमा समझते हुए कहा था कि, “किसी व्यक्ति को शिक्षित करना, आर्थिक रूप से उसकी मदद करना, भूखे को भोजन कराना, भटके हुए को सही मार्ग दिखाना, जरूरतमंद की मदद करना सभी दान के रूप हैं।” हां निश्चित ही,
दान करते समय मन की धारणा अवश्य सच्ची होनी चाहिए। केवल दिखावे के दान से उसका पुण्य नहीं मिलता। दान वह होता है जो नि:स्वार्थ भाव से दिया जाता है।’
आज हमारा देश एक परिवार की भांति व्यवहार कर रहा है। बिल्कुल जैसे एक परिवार में सब एक दूसरे का ध्यान रखते हैं न, वैसे ही आज हमारा पूरा देश भी एक दूसरे का ध्यान रखने में व्यस्त है। जैसे परिवार में कुछ लोग निस्वार्थ सेवा करते हैं, वैसे ही यहां भी कुछ लोग और संस्थाएं निस्वार्थ अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए सेवा में लगे हैं, बिल्कुल हमारी मां की तरह। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग काम कम पर काम की व्यस्तता अधिक दर्शा कर खुद की सेवा प्रदर्शित करने में ज्यादा वक्त लगा रहे हैं, बिल्कुल जमाई बाबू की तरह।
“दान वह परोपकार है जिसे करके भूल जाना चाहिए।”
यह कोई व्यापार तो नहीं जिसे बात बात पर सुनते रहो!!
एक माला जाप पूरा होते ही माताजी ने कहा कि, “इतने कम पैसों में किसी के लिए एक समय के भोजन का राशन भी नहीं आ पाएगा।” माता जी पुनः अपना स्वर कुछ सख्त करते हुए बोली, जहां तक बात हमारी है, तो हमें…
सदेव इस बात के लिए कृतज्ञ होना चाहिए कि, ईश्वर ने हमें देने योग्य बनाया है, मांगने वाला नहीं।
ऐसा कहकर माताजी फिर अपनी माला संभालते हुए दूसरी ओर मुंह करके बैठ गई।
माता पिता की आवाज़ सुनकर उनका अति समझदार पुत्र बीच-बचाव करने उनके कक्ष में पहुंचा। अपनी पत्नी और बच्चों की ओर देखकर पिताजी की बातों से अपने परिवार की प्रतिष्ठा घटती हुई महसूस करते हुए पिताजी को दान के नाम पर ₹500 निकालने का आग्रह करने लगा।
माता जी की बात का सम्मान रखते हुए बेटे ने पिता जी को ₹500ssss की इतनी बड़ी राशि का दान निकलवाया इस बात पर माता जी को बड़ा गर्व महसूस हो रहा था।
माता जी ने मन ही मन सोचा कि इतने रूपयों में तो एक परिवार के लिए कुछ समय का राशन तो आ ही जायेगा।
परन्तु परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य होने के नाते, पुत्र को पिताजी की बात भी सही लग रही थी…
यही कि, पैसे बहुत मुश्किल से कमाए जाते हैं, उन्हें इस तरह से दान वान करके बर्बाद नहीं करना चाहिए क्योंकि यह दान लेने वाले सब चोर और पाखंडी होते हैं, जो इन महान दानवीरों की गाढ़ी कमाई बर्बाद कर देंगे।
दानी का कर्तव्य अपनी समर्थ से दान देना मात्र है । दान प्राप्त करने वाला उस वस्तु अथवा राशि का जो भी करें यह उसका निजी निर्णय होगा।
क्योंकि दान प्राप्त करने के बाद वह वस्तु अथवा राशि दान प्राप्त करने वाले की निजी संपत्ति मानी जाएगी।
इस दौर में जहां एक ओर सरकारी सहायता के अलावा निजी तौर पर भी लोगों ने कई तरह से ज़रूरतमंद लोगों और तो और पशु पक्षियों को भी अपनी सामर्थ्य के हिसाब से उनका पेट भरने में सहायता करने के अद्वितीय काम में अपना योगदान देने का बीड़ा उठा रखा है।
वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे खुद को इस वक्त में सबसे उत्तम दानी कैसे साबित करें। ये महानुभाव वे हैं; जो की एक मुट्ठी दान के लिए भी पहाड़ जितनी योजनाएं बनाते हैं, कई दिनों तक चर्चाएं करते हैं, फिर उसके प्रचार के लिए जूझते दिखाई पड़ते हैं और अंततः अपने इस महान कार्य की सफलता के गुणगान करने में अत्यंत व्यस्त हो जाते हैं।
इसलिए अब पिताजी और उनके पुत्र के मध्य ₹500 के महादान के वितरण को लेकर चर्चा आरंभ हो गई। इतने गंभीर मुद्दे पर पिता और पुत्र दोनों ही काफी ऊँचे स्वर में करीब आधा घंटा चर्चा करते रहे। चर्चा का विषय था कि, इन ₹500 की पाई पाई किसी खास ज़रूरतमंद के पास ही पहुंचनी चाहिए, जो कि सारी उम्र याद रख सके की इस विशेष परिवार ने, कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के कठिन दौर में हमारी आर्थिक सहायता की थी।
इस परिवार की सहायता के लिए आने वाले सभी ज़रूरतमंद लोगों की सूची तैयार की गई। परिवार के हर सदस्य से यह पूछा गया कि सबसे ज्यादा दान का हकदार किसे माना जाए। घर के सभी सदस्य इस चर्चा का आनंद लेने लगे। दोनों महा पुरुषों को माताजी और उनकी बहू ने कई बार समझाना चाहा कि एक ही जरूरतमंद परिवार की सहायता करनी चाहिए। पर वे तो अपने ₹500 के निवेश को आकर्षक बनाने में लगे थे।
अब उनकी सूची में कई नाम गरीब समझकर जोड़े गए और फिर कई नाम यह सोचकर हटाए भी गए कि वे इस दान का दुरुपयोग कर सकते हैं। अंततः एक लंबी और गहन चर्चा के पश्चात कुछ भाग्यशाली लोगों की एक सूची तैयार हो गई और इन ₹500 को 5 भागों में विभाजित कर दिया गया।
जमादार, कामवाली, ड्राइवर, हर महीने आने वाला भिखारीयों में से वह एक अधिक निर्बल एवम् वास्तविक ज्ञात पड़ता था और पुत्र के ऑफिस में उनके जूठे बर्तन धोने वाला एक कर्मचारी। यानी हर वह व्यक्ति जो परिवार के कई कामों में मददगार साबित होता हो तथा लंबे समय तक परिवार से मिले दान के बदले ईमानदार रह सकते हो, उन्हीं पर इस दान का एहसान करने की ठानी गई।
मैंने बचपन में अपने दादा जी सुना था कि, “दान इस तरह करना चाहिए कि दाएं हाथ से करो तो बांए हाथ को खबर भी ना हो!”
इतना ही बस नहीं था अब चिंता का विषय यह था कि यह महादान किसके हाथ से दिलवाया जाए?
बच्चों के हाथ से….नहीं नहीं…. बच्चे तो गिरा देंगे और क्या पता जिसे देना है उसे ना दिया तो!!
माताजी अपनी बीमारी की वजह से उठ नहीं सकती है…
बहू कामकाज की व्यस्तता में भूल ना जाए…
बचे पिताजी और उनके पुत्र जी…
पुत्र ने औपचारिकता से पिताजी को ही दान देने के लिए कहा…
पिता जी ने पुत्र को कहा कि, “तुम ही हमारे घर का अहम सदस्य हो इसलिए तुम अपने हाथों से दान दो ताकि वे तुम्हें आशीर्वाद दे। अखिक कार निवेश की गई राशि का फल भी तो पूरा प्राप्त करना ज़रूरी है।
यह सुनकर पुत्र के चेहरे पर लंबी मुस्कान पसर गई और उन्होंने अपने पिताजी की सहमति से अपने कर कमलों से दान देने का आग्रह स्वीकार कर लिया।
₹100- ₹100 के 5 नोट निकालकर अलग रख दिए गए और दान प्राप्त करने वालों के आने के समय के हिसाब से सर्वप्रथम जमादार का हिस्सा पुत्र ने अपने हाथों में दबा लिया… इसी प्रकार अगले दिन ड्राइवर और ऑफ़िस के कर्मचारी के लिए अपने साथ उनका हिस्सा भी ले गए….
और कुछ ही दिनों के बाद हर महीने की तरह इस माह की पूर्णिमा पर वह भिखारी भी आ गया। अब जब लॉक डाउन खत्म होने के बाद कामवाली आएगी तब उनका हिस्सा भी उनको को दे दिया जाएगा। त्यौहार बीत जाने के बाद दोबारा वहीं तिथि आने तक तो यह दान सब में बट ही जाएगा।
-Ramandeep Kaur
दान करो और करते जाओ! वक्त आज मेहरबान है कल क्या पता तुम किसी के दान के शरणार्थी बन जाओ ।
दिस वास अ गुड रीड!
Thanks Bhai….
Nice story. Will tell my daughter to read this.she loves to read stories.
Thank You my dear…
Very nicely articulated story, infact it reflects the state of confusion that we often go through in out heart and mind when we think of charity even during this lockdown period
Thank u dear Rajni, your words means a lot…